Posts

तू कभी मिल जाये तो इस बात का चर्चा करूँ

तू कभी मिल जाये तो इस बात का चर्चा करूँ हो गिला तुझसे ही तो किससे ख़ुदा शिकवा करूँ हर सुतूं मिस्मार है अब इस हिसारे जिस्म का रूह जाने को ही राज़ी है नहीं तो क्या करूँ धूप के मासूम टुकड़ों की है मुझसे आरज़ू साथ उनके जब रहूँ तो उनपे मैं छाया करूँ झुर्रियाँ हैं फ्रेम पर तस्वीर अब भी है जवान क्यों हिसाबे वक़्त करके मैं तुझे बूढ़ा करूँ रो पड़ूँगा यूँ  भी  तुझको आबदीदा  देखकर इसलिए  सोचा  है  तेरे अश्क  मैं  रोया करूँ नीमकश अबरू तुम्हारी जब करे हैं गुफ़्तगू चाहता हूँ ज़द पे उनकी सिर्फ़ मैं आया करूँ प्यार  की बस इब्तिदा  है  इंतिहा होती  नहीं इसलिए  बेहतर  है तुझको दूर से देखा करूँ कोई हद नाकामयाबी की बता मुझको ख़ुदा आख़िरश कब तक मैं अपने आप को रुस्वा करूँ मुस्कराना भी जो फ़ेहरिस्ते गुनह में है रक़म तो मैं  एहसासे  समीमे  क़ल्ब  से तौबा करूँ साहिबेइस्मत  परीपैकर  खड़ी  हो  सामने तो शगुफ़्ता गुल लिए क्यों और का पीछा करूँ मार दूँ अपनी अना को बेंच दूँ अपना ज़मीर ज़िन्दगी तेरे लिए क्या क्या मैं समझौता करूँ जब जहां की शै सभी फ़ानी हैं तो इनके लिए क्या मुनासिब है कि अपनी रूह का सौदा करूँ शेषधर

कोई शिकवा गिला है ही नहीं अब

कोई शिकवा गिला है ही नहीं अब अदावत  में  मज़ा  है  ही नहीं अब चलो  फिर  इब्तिदा  पर  लौटते  हैं उमीदे   इंतिहा   है   ही  नहीं  अब ख़ुशी की जुस्तजू की क्या ज़रूरत ग़मों  से  वास्ता  है   ही  नहीं  अब मज़ा लेना है अब  दौरे  ख़िजां का चमन में कुछ बचा है ही नहीं अब किया है क़त्ल कितनी बार ख़ुद को मेरे  हिस्से  क़ज़ा  है  ही  नहीं  अब मरेगा   भूख   से   प्यासा   समुन्दर नदी  में  वो  ग़िज़ा  है  ही नहीं अब शरीके जुर्म  हो तो   ख़ौफ़  किसका गुनाहों  की  सज़ा  है  ही  नहीं  अब राफ़ाक़त  में  कहाँ  है  वैसी  शिद्दत किसी  में  बचपना  है  ही  नहीं अब शेषधर तिवारी, इलाहाबाद 27 जून, 2018 1222 1222 122

अगर क़ुव्वत है तो पढ़ लो हमारी मुस्कराहट को

अगर  क़ुव्वत है तो  पढ़ लो  हमारी  मुस्कराहट को झुकी पलकें बताओ सुन रही हैं किसकी आहट को भले   मासूम   चेहरे  पर   निगाहें   थम   गयीं  मेरी मगर  पढ़  तो चुका  हूँ तेरे मन की  छटपटाहट को तसव्वुर  के  फ़साने  सब  अयाँ  हो  जायेंगे पल में अगर  तुम  पढ़  सको  मेरे लबों की थरथराहट को मुझे  दौरे  खिजां  को  भी  अभी  महसूस  करना है सुनूँगा  बादे  सरसर   की   सुरीली  सरसराहट   को तुझे  देखूँ   तो  रुकता  है   रगों  में  क्यों  लहू  मेरा पटकता  हूँ  कि  पैरों से  मिटा  लूँ  झनझनाहट को तुम्हारे दिल की बातें ख़ुद ब ख़ुद  ही नस्र हो जातीं सुना  होता जो  मैंने  चूड़ियों  की  खनखनाहट को तेरे    आँसू    लगे   झूठे    तेरी   बातें   लगीं   झूठी किया  महसूस  जब तेरी ज़ुबां की लड़खड़ाहट को मेरे  जज़्बात  के  बादल  बरस  जाने को आतुर  हैं सुनो दिल पर लगाकर कान इनकी गड़गड़ाहट को शेषधर तिवारी 25th June, 2018

शबे वस्ल ऐसे उसको खल रही थी

शबे वस्ल ऐसे उसको खल रही थी उदासी  रात  भर  बेकल  रही  थी सुकूं  गायब  हुआ  चेहरे  से  उसके जो  देखा  नब्ज़  मेरी  चल रही थी गले  मिलकर गला काटा फिर उसने वही  फ़ित्रत  दिखी जो कल रही थी तसव्वुर   में   वो   मेरे   क़ैद   है  जो बहुत दिन  आँख  से ओझल रही थी बही वो आख़िरश अश्कों में ढल कर अना  जो  बेसबब  ही  पल  रही  थी न थी तज़हीजो तकफ़ीं* की ज़रूरत वो  अपनी आग में  ही जल  रही  थी जगी थी आस फिर, जब बर्फ ज़िद की भले  धीरे  ही  लेकिन  गल   रही   थी मुकर्रर  साअत  आ  पहुँची  विदा  की जुदाई  तय  थी  लेकिन  टल  रही थी * अंतिम क्रिया का सामान शेषधर तिवारी, इलाहाबाद

नींद के बोझ से कुछ सँभलता हुआ

नींद   के  बोझ  से  कुछ  सँभलता हुआ शम्स निकला है फिर आँख मलता हुआ ये  पता  अब  चला ,संगे मील इस क़दर दूर   लाया   हमे ,  साथ   चलता   हुआ ख़्वाब  मेरे  थे  शादाब   गुल  की  तरह क्यों  गया  वक़्त  उनको मसलता हुआ मेरे   सपनों   में  आता   है  क्यों  बारहा मेरा  नन्हा  सा  बचपन  मचलता  हुआ अपनी  सोज़े मुहब्बत  को  क़ाइम रखो हमने   देखा  है   लोहा  पिघलता  हुआ प्यास  ख़ुद  ही  पशेमां  हुई   देख  कर रेत  का   इक   समुन्दर  उबलता  हुआ रौशनी    की    चकाचौंध   में    देखिये एक  टुकड़ा  अँधेरे   का  चलता  हुआ ग़ौर   से   देखिए   फ़ित्रत   इंसान   की कैसा लगता है ख़ुद को ही छलता हुआ शेषधर तिवारी, इलाहाबाद 9335303497

न है अब शै कोई जो चैन छीने

न है अब शै कोई जो चैन छीने यूँ मुत'अस्सिर किया है शायरी ने समंदर से निकलने को है दरिया किया आगाह आँखों की नमी ने नही छूटे हैं उसके दाग अब तक बहुत दिन चाँद को धोया नदी ने चला हूँ धूप को मुट्ठी में ले कर बहुत कर ली ठिठोली तीरगी ने तुम्हारी नीमवा आँखों से शायद कहा है कुछ दिये की रोशनी ने ताक़ाज़ाए जुनू है जां से गुजरूँ किया शक मेरी उल्फ़त पर किसीने तू उसकी नेकियां कैसे गिनेगा उन्हें डाला है दरिया में उसी ने जो सब में है उसी की जुस्तजू में कोई  काशी  गया  कोई  मदीने शराफत छोड़नी थी या मसर्रत शराफत छोड़ दी है आदमी ने

मेरा ख़ुशियों से साबका पूछा

मेरा  ख़ुशियों से साबका पूछा रात  से  धूप  का  पता  पूछा अश्क़    तीमारदार   थे    मेरे दर्द  ने  हाल  ज़ख़्म  का  पूछा ज़िन्दगी की न फ़िक्र की, उसने शुक्र  है,  बाइसे   क़ज़ा,  पूछा ख़ुद से मुज़रिम ने जागने पे ज़मीर, क्यों  हुई  उससे  ये  ख़ता  पूछा दौर क्या है कि मुझसे वाइज़ ने किसको कहता हूँ मैं ख़ुदा पूछा दीद  पाकर  सवाल  भूल  गए पूछना क्या था और क्या पूछा आये तो थे हमारी पुरसिश में कैसे  पढ़ते  हैं  मर्सिया  पूछा मुस्तहक़ हूँ ये मानकर मुझसे ख़ुद ही मंज़िल ने रास्ता पूछा