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Showing posts from May, 2018

मेरा ख़ुशियों से साबका पूछा

मेरा  ख़ुशियों से साबका पूछा रात  से  धूप  का  पता  पूछा अश्क़    तीमारदार   थे    मेरे दर्द  ने  हाल  ज़ख़्म  का  पूछा ज़िन्दगी की न फ़िक्र की, उसने शुक्र  है,  बाइसे   क़ज़ा,  पूछा ख़ुद से मुज़रिम ने जागने पे ज़मीर, क्यों  हुई  उससे  ये  ख़ता  पूछा दौर क्या है कि मुझसे वाइज़ ने किसको कहता हूँ मैं ख़ुदा पूछा दीद  पाकर  सवाल  भूल  गए पूछना क्या था और क्या पूछा आये तो थे हमारी पुरसिश में कैसे  पढ़ते  हैं  मर्सिया  पूछा मुस्तहक़ हूँ ये मानकर मुझसे ख़ुद ही मंज़िल ने रास्ता पूछा

खिलाया है जो हमने उस सुमन की आबरू रखना

खिलाया है जो हमने उस सुमन की आबरू रखना खिजां में भी मुहब्बत के चमन की आबरू रखना मुक़द्दस  रूह  तुझसे  मेरी बस इतनी गुज़ारिश है कि  अपने  इस  पुराने  पैरहन की  आबरू रखना भले ही कर  लिया तर्के  तअल्लुक  रूठकर मुझसे कभी था दरमियां उस अपनेपन की आबरू रखना 'सुख़नवर' में बनोगे अह्ले मकतब से ग़ज़लगो तुम सिखाये जो तुम्हें उस अह्ले फ़न की आबरू रखना भले  झूठी  सही  मेरी  सताइश  कर  ही  देना तुम अनासिर जब  बने उंसुर कफ़न की आबरू रखना सभी के साथ मिलकर जो किया संकल्प, पूरा हो अदब के हर अनुष्ठान-आचमन की आबरू रखना निराशा से न भर  देना कभी सुनसान लम्हों को मेरे जज़्बात के कोमल छुअन की आबरू रखना हमारी  है  यही  छोटी सी लेकिन पुरसुकूं दुनिया चले जायें जो, उनके आगमन की आबरू रखना