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Showing posts from November, 2017

दिल तू केवल अपने काम से काम रखा कर

दिल तू केवल अपने काम से काम रखा कर प्यार  मुहब्बत  के  लफड़ों  से  दूर  रहा कर दुनिया  ख़ुद  तो  जाना  चाहेगी मंज़िल तक तुझको   भटका  देगी  दूजी  राह  दिखाकर अपनी   अपनी   कश्ती   लेकर  सब  डूबेंगे फिर  भी उतरे  हैं  सागर  में दाँव  लगा  कर अपना  क्या,  डूबेंगे   या   उस  पार  मिलेंगे हर  सूरत  में  नाम  शनावर  का ही पा  कर ताब  किसी  में  है  तो  वो  जाहिर  होगी  ही नाम भले हो सूरज, रवि या शम्स, दिवाकर तेरे  घर  की  छत  से चाँद नहीं दिखता क्या मेरे  घर  की  छत से आकर देख  लिया कर कितनी बार  बनाया और  मिटाया अब तक रखना   है   तेरी   उम्दा  तस्वीर   बना  कर

जिसे छू के मैं बारहा जल चुका हूँ

जिसे छू के मैं बारहा जल चुका हूँ उसी  राख  में  ज़िंदगी  ढूंढता  हूँ लहू जिनकी आँखों में उतरा है, उनसे है  पानी  कहाँ  आँख  का, पूछता हूँ लिए  आग  आँखों  में, आँसू  गले  में ख़ुद अपनी ही मुट्ठी में कस कर दबा हूँ मैं उतरा हूँ जिसकी हक़ीक़त की तह में वो समझा कि मैं डूब कर मर चुका हूँ मेरी  बेबसी का  ये आलम तो देखो उसे चुप करा कर मैं खुद रो रहा हूँ मैं सूरज को रस्ता दिखाता हूँ दिन भर अँधेरे  में  अपना  ही  घर  ढूंढता  हूँ मुझे जो भी अच्छी तरह जानता है बता दे  वही, क्या मैं उससे बुरा हूँ समुंदर जो बनता तो ठहरा ही रहता रवानी की ख़्वाहिश में दरिया हुआ हूँ था अपनी ही तस्वीर में क़ैद लेकिन उसे तोड़कर  अब  रिहा  हो चुका हूँ

अब सबा भी बादे सर सर बन गयी है

अब सबा भी बादे सर सर बन गयी है मैं बिखर जाऊँ, सही मौसम यही है जब सराबों से घिरा है सारा सहरा फिर वहाँ क्यूँ तिश्नगी ही तिश्नगी है अब हुई महसूस उन्हें मेरी ज़रूरत बर्फ अना की धीरे धीरे गल रही है जब भी टूटेगा ख़ला से इक सितारा तो समझ लूँगा जगह मेरी बनी है ऐ ख़ुदा तू और इक सूरज बना दे अब ज़मीं पर इन्तहाई तीरगी है ये जो मेरे दिल की है तलबे अज़ीयत बस मुहब्बत  की  हक़ीक़ी  बानगी है जिस्म को हर इक सज़ा मंज़ूर होगी रूह ने जब ख़ुद गवाही हँस के दी है खूब अँधेरों ने इन्हें लूटा है शब भर जो सितारों की चमक जाती रही है लाख तारों से करे आराइशें मह आसमां को जुस्तजू तो शम्स की है

सज़ा के तौर पर दुनिया बसाना

सज़ा के तौर पर दुनिया बसाना गुनह कितना हसीं था सेब खाना रहा अव्वल तेरे हर इम्तिहां में ख़ुदा अब बंद कर दे आज़माना चढ़े सूरज का मुस्तकबिल यही है किसी छिछली नदी में डूब जाना  दलीलें पेश करके थक चुका हूँ सुना दो फैसला जो हो सुनाना खुदा मैं पास तेरे आ तो जाऊँ ज़मीं का कर्ज़ बाकी है चुकाना तुम्हारी ख़ूबियाँ जब जानता हूँ तुम्हारी ख़ामियों को क्या गिनाना महो अंजुम को है जब रश्क तुमसे किसी इंसान को क्या मुह लगाना  समुंदर मौजज़न आँखों में हैं जो उन्हें दरिया बनाकर क्यूँ बहाना हमें मंज़िल दिखाई दे रही है हमारी राह मत रोके ज़माना

ज़िक्र मैं कैसे करूँ तेरी जफ़ा का

ज़िक्र मैं कैसे करूँ तेरी जफ़ा का दे चुका हूँ जब तुझे दर्जा ख़ुदा का ज़िन्दगी जीना बहुत मुश्किल नहीं है क्यूँ करूँ मैं इंतज़ार अपनी क़ज़ा का रब तुझे तो ढूँढ़ कर मैं थक गया हूँ दे दिया है इश्तिहार इक ग़ुमशुदा का हार अपनी मान लेता मैं लड़े बिन जिक्र तूने  बेसबब  छेड़ा अना का हँस न दरिया काट कर अपने किनारे मान करना सीख तू इन की वफ़ा का जीत तो हासिल करो बेजा अना पर बेसबब लहरा रहे हो तुम पताका लिख ही दूँगा मैं अगर कश्ती पे "पानी" क्या बिगड़ जायेगा इससे नाख़ुदा का सुर्ख़ आरिज़, बाल गीले, लब गुलाबी ज़ह्न में चेहरा है उस नाआश्ना का सिसकियाँ शहनाईयों की सुन रहा हूँ इम्तिहां है वक़्ते रुख़्सत भी बला का

अगर आँसुओं का सहारा न होता

अगर आँसुओं का सहारा न होता ग़मों का जहां में गुजारा न होता अगर हुस्न से इश्क हारा न होता तो यूँ हुस्न को इश्क़ प्यारा न होता मेरा गर्दिशों में सितारा न होता तो मैं टूट कर पारा पारा न होता अगर ज़ुर्म को ज़ुर्म तू मानता तो वही ज़ुर्म तुझसे दुबारा न होता गले मिल के नदियाँ बहातीं न आँसू तो सागर कभी इतना खारा न होता तेरी दीद हमको गुनहगार करती अगर हमने सोचा विचारा न होता अगर भूलता अपनी औकात दरिया तो साथ उसके कोई किनारा न होता मैं ख़ुद ही तेरे पास आता पलटकर अगर तूने मुझको पुकारा न होता फ़ने शायरी जो न आता अमल में तसव्वुर का फिर इस्तिआरा न होता

अदू को मो'तबर कर लूँ यही अरमान बाक़ी है

अदू को मो'तबर कर लूँ यही अरमान बाक़ी है भले कमज़ोर है लेकिन अभी तूफ़ान बाक़ी है फलक पर कर चुका हूँ मैं रक़म अपनी कहानी सब लिखा है अज़ सरे नौ सिर्फ़ इक उन्वान बाक़ी है जहाँ थीं बस्तियाँ अब हैं वहाँ कंक्रीट के जंगल रिहाइश के लिए बस शह्र इक वीरान बाक़ी है मुक़द्दर के वरक़ पर कर दिया तूने रक़म क्या क्या हर इक शै खो चुका हूँ सिर्फ़ अब ईमान बाक़ी है अजब वाबस्तगी तेरे हमारे दिल में है पैहम हमारे जिस्म में अब भी तू बनकर जान बाक़ी है ज़ुबां पर तुम मिरी चाहे लगा दो क़ुफ़्ल सौ लेकिन करोगे क्या, लबों पर जो मेरे मुस्कान बाक़ी है चली है जानिबे दरियाए सहरा तिश्नगी मेरी फ़राहम हो वहीं कुछ आब, ये इम्कान बाक़ी है ख़ुदा बनने की चाहत में बना हर आदमी पत्थर किसी भी आदमी में अब कहाँ इंसान बाक़ी है

हक़ीक़त चाँद की सब को पता है

हक़ीक़त चाँद की सब को पता है तो क्यूँ कह दूँ तेरा रुख़ चाँद सा है पढ़ेगा  क्या  वो औरों  की लकीरें मुक़द्दर को  जो अपने  कोसता है मैं  तेरा  या  तू  मेरा  दिलकुशा है कोई  ये सोच  कर दुबला हुआ है हसीनों दूर रहना कुछ दिनों तक मेरी आँखों का रोज़ा चल रहा है सफ़र कितना है लम्बा ज़िंदगी का जो  सूरज  रोज  इसको नापता है यक़ीनन तल्ख़ है पर है हक़ीक़त सभी  के  खून  में  पानी  मिला है मेरी  तस्वीर  धुँधली  हो  गई  या पसे   दीवार   कोई   रो   रहा   है लकीरें   हाथ   की  ये  पूछती  हैं बहाने   क्यूँ   बनाना   चाहता  है बुलाते  थे  तुम्हे  जो  महज़बीं  वो बतायें  झुर्रियों  में  क्या  लिखा है शेषधर तिवारी, इलाहाबाद