हक़ीक़त चाँद की सब को पता है

हक़ीक़त चाँद की सब को पता है
तो क्यूँ कह दूँ तेरा रुख़ चाँद सा है

पढ़ेगा  क्या  वो औरों  की लकीरें
मुक़द्दर को  जो अपने  कोसता है

मैं  तेरा  या  तू  मेरा  दिलकुशा है
कोई  ये सोच  कर दुबला हुआ है

हसीनों दूर रहना कुछ दिनों तक
मेरी आँखों का रोज़ा चल रहा है

सफ़र कितना है लम्बा ज़िंदगी का
जो  सूरज  रोज  इसको नापता है

यक़ीनन तल्ख़ है पर है हक़ीक़त
सभी  के  खून  में  पानी  मिला है

मेरी  तस्वीर  धुँधली  हो  गई  या
पसे   दीवार   कोई   रो   रहा   है

लकीरें   हाथ   की  ये  पूछती  हैं
बहाने   क्यूँ   बनाना   चाहता  है

बुलाते  थे  तुम्हे  जो  महज़बीं  वो
बतायें  झुर्रियों  में  क्या  लिखा है

शेषधर तिवारी, इलाहाबाद

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