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Showing posts from April, 2018

ख़ुद से बाहर आने की कोशिश में हूँ

ख़ुद से बाहर आने की कोशिश में हूँ मैं अपने  को  पाने की कोशिश में हूँ जीवन के बदरंग धनक पर फिर से मैं सातों  रंग चढ़ाने  की  कोशिश  में  हूँ नासमझी में  नासमझी  हो  जाती  है ख़ुद को ये समझाने की कोशिश में हूँ रूह  तुझे  मैं क्यों  जाने दूँ और  कहीं पैरहने  नौ  पाने  की  कोशिश  में  हूँ फूलों और  हवा में अहद  करा कर ही गुलशन को महकाने की कोशिश में हूँ जो भी हो अपना किरदार निभाकर मैं पर्दा  आज  गिराने  की  कोशिश में हूँ मौत  तुम्हारे  आने  तक  जैसे  तैसे अपनी जान बचाने की कोशिश में हूँ झूठी  ही, अपनी  बर्बादी  की  ख़बरें उन तक पहुँचा पाने की कोशिश में हूँ तेरा  अक्स  उभारें जो इन आँखों  में वो जज़्बात छुपाने की कोशिश में हूँ

ख़ुद पर अत्याचार करूँगा

ख़ुद पर अत्याचार करूँगा तुझको फिर स्वीकार करूँगा अपनी लाशा की कश्ती पर ग़म का दरिया पार करूँगा ताबीरों की ख़ातिर अपने ख़्वाबों से भी रार करूँगा आँसू  तो  मेरे  अपने  हैं उनको ही ग़मख़्वार करूँगा जीवन में खुशियाँ पाने को ग़म को ही आधार करूँगा हिम्मत है तो आये सूरज उससे आँखें चार करूँगा जुगनू हूँ पर वक़्ते ज़रूरत अंधियारों पर वार करूँगा पार निकल पाऊँ सहरा से कोशिश बारम्बार करूँगा लकड़ी की काठी पर घोड़ा लेकर भी यलग़ार करूँगा अपने सपनों की मंज़िल पर इक दिन मैं अधिकार करूँगा

हम तुम्हें छोड़ के जन्नत भी न जाने वाले

हम  तुम्हें  छोड़  के  जन्नत भी न जाने वाले आबला   पा  के   लिए  फूल  बिछाने  वाले तेरी दुनिया मेरी दुनिया से अलग क्या होगी रस्मे  दुनिया  को हैं  हम  दोनों निभाने वाले जी  उठूँ  मैं  न  कहीं  लम्स  तुम्हारा  पाकर मेरी   तस्वीर   को   सीने   से   लगाने  वाले जिस्म  पर  मेरे  उभरते हैं तेरी याद के साथ फिर   वही   ज़ख़्म   वही  दाग़  पुराने  वाले तू जो कह दे तो दुबारा वो ख़ता फिर कर दूँ जिसके  किस्से  नहीं  होते  हैं  सुनाने  वाले हमने   देखे   हैं  कई  लोग   इसी  दुनिया  में एक  ही   दिल   को  कई  ठौर  लगाने  वाले आख़िरी ज़िद है तुम्हारी तो चलो मान लिया सर   तुम्हारा   नहीं  शाने   से   हटाने   वाले शेषधर तिवारी इलाहाबाद

तू भले मुझको अँधेरों में अकेला कर दे

तू भले मुझको अँधेरों में अकेला कर दे मेरे  साये  को  मेरे  साथ ख़ुदाया कर दे छीन   ले  तू   भले  आँखों  से  मेरी  बीनाई तू ही हर सिम्त नज़र आये कुछ ऐसा कर दे कर  दे  ग़र्क़ाब  मुझे  तो भी कोई रंज नहीं दस्तरस  में  तू  सराबों  को  ख़ुदाया कर दे शह्र की आबो  हवा आज  बहुत  बरहम है या ख़ुदा! शह्र के बाशी को फरिस्ता कर दे दिल जो  रखता  है मेरा यार समुन्दर जैसा उसके सीने में उतर जाऊँ वो दरिया कर दे बाद मरने के  ही  क्यूँ  मेरी सताइश होगी मेरे जीते जी  ख़ुदा इसका ख़ुलासा कर दे मेरे अहबाब जो अब  मुझसे  खिंचे रहते है मैं उन्हें  याद  बहुत आऊँ  वो रस्ता कर दे लोग  उम्मीद  बहुत  करने  लगे  हैं  मुझसे फ़िक्रो फ़न को तू मेरे 'मीर' के जैसा कर दें 2122 1122 1122 22

ख़ौफ़ का हर इक पसेमंज़र निकालें

ख़ौफ़ का  हर इक पसेमंज़र निकालें ज़ेहन  में  बैठे  हुए  सब  डर निकालें घुट रहा है  मेरे  ही अंदर  दम इसका रूह को अब जिस्म से बाहर निकालें बढ़ गया है दायरा परवाज़ का अब तो परिंदे भी नए  कुछ  पर निकालें आपका  मंसब  जो पूरा हो गया हो बा सलीका पीठ से खंजर निकालें आपने  जो  भी  कहा  शीरीं  जुबां से क्यों न उस गागर से हम सागर निकालें दरमियां  दीवार  उठानी  ही  पड़े  तो ये  ज़रूरी  है  कि  उसमें  दर निकालें संगदिल  को  टूटना  ही था तो  टूटा आइये अब जिस्म से पत्थर निकालें राह  से  भटके  हुओं  को  तजरुबा है रहजनों से चुन के इक रहबर निकालें शेषधर तिवारी, इलाहाबाद