ख़ौफ़ का हर इक पसेमंज़र निकालें

ख़ौफ़ का  हर इक पसेमंज़र निकालें
ज़ेहन  में  बैठे  हुए  सब  डर निकालें

घुट रहा है  मेरे  ही अंदर  दम इसका
रूह को अब जिस्म से बाहर निकालें

बढ़ गया है दायरा परवाज़ का अब
तो परिंदे भी नए  कुछ  पर निकालें

आपका  मंसब  जो पूरा हो गया हो
बा सलीका पीठ से खंजर निकालें

आपने  जो  भी  कहा  शीरीं  जुबां से
क्यों न उस गागर से हम सागर निकालें

दरमियां  दीवार  उठानी  ही  पड़े  तो
ये  ज़रूरी  है  कि  उसमें  दर निकालें

संगदिल  को  टूटना  ही था तो  टूटा
आइये अब जिस्म से पत्थर निकालें

राह  से  भटके  हुओं  को  तजरुबा है
रहजनों से चुन के इक रहबर निकालें

शेषधर तिवारी, इलाहाबाद

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