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Showing posts from March, 2018

न जाने क्यूँ मेहरबां हुआ है

न जाने क्यूँ  मेहरबां  हुआ है हमारे  दिल में  ख़ुदा  बसा है कोई नफ़स पर सवार होकर हमारे  भीतर   उतर  रहा  है जिसे समझना है जो, समझ ले हक़ीक़त  अपनी  हमें  पता है हमारे  घर  की हर एक दीवार से  ग़म  हमारा  टपक  रहा  है कोई   मुसव्विर   मेरे  तसव्वुर में  नक्शे  महशर बना चुका है      प्रलय हर  एक  को इत्तिला करूँ क्यूँ मेरी अक़ीदत  में कौन क्या है न  वालिदैन  अब  रखें  उमीदें वो अपने पैरों  पे अब खड़ा है न जाने कितनी तवील शब थी जो  शम्स  ऐसे  थका  थका है 121 22  121 22

जब हम धीरे धीरे मरने लगते हैं

जब  हम  धीरे  धीरे  मरने  लगते हैं दीवारों पर अक्स  उभरने  लगते  हैं शक्ल तसव्वुर में  होती  है जो रंगीन उसके  सारे   रंग   उतरने   लगते  है कोशिश  करते  हैं जीवन  मे रंग भरें पर  हालात  सियाही भरने लगते  है अपनी  ख़ुद्दारी  के  पर  अपने  हाथों हम  होकर मज़बूर, कतरने लगते हैं औरों  के  डर  का बाइस बनते हैं, वो अपने  साये  से  भी  डरने  लगते   हैं ज़िम्मेदारी  पाकर  अत्फ़ाले  ख़ुदसर ख़ुद ही अपने  आप  सुधरने लगते हैं सुनने लगता है जब जिस्म सदा-ए-रूह हम   भवसागर - पार  उतरने  लगते  हैं ग़म  होता  है  अपनों  के  जाने  का पर ज़ख़्म  हमारे  ख़ुद  ही  भरने  लगते  हैं होता है अहसास जब अपनी ग़लती का हम   अपने   नाखून   कुतरने  लगते  हैं हुस्नो इश्क  का  जब संगम  हो जाता है चेहरे  अपने   आप   निखरने   लगते  हैं शेषधर तिवारी, इलाहाबाद 13 अप्रैल, 2018

जिंन्दगी को शाद करने के लिए

जिंन्दगी  को  शाद करने के लिए जी  रहे  हैं  लोग  मरने  के  लिए आइने   की  साफ़गोई   देख  कर वो  हुए  राज़ी   सँवरने   के  लिए ख़ुदसरी  अपनी  ही  ज़िम्मेदार है अपने  ही  साये  से डरने के लिए मौत  की तलवार क्यूँ लटकी है यूँ ज़िन्दगी क्या कम है मरने के लिए सोगवार अब  घर  की हर दीवार है ग़म को ही ग़मख़्वार करने के लिए दिल!  रज़ामंदी   ज़रूरी   है   तेरी हम  तो  राज़ी  हैं  सुधरने के लिए वक़्त थोड़ा चाहिए ख़ुशियों को भी पैकर-ए-ग़म  पर  उभरने  के  लिए देखकर  मुझको  तेरी आँखें  हैं नम कम  है  क्या  मेरे  निखरने के लिए शेषधर तिवारी, इलाहाबाद facebook.com/tsdhar 9335303497 10 मार्च, 2018