जब हम धीरे धीरे मरने लगते हैं

जब  हम  धीरे  धीरे  मरने  लगते हैं
दीवारों पर अक्स  उभरने  लगते  हैं

शक्ल तसव्वुर में  होती  है जो रंगीन
उसके  सारे   रंग   उतरने   लगते  है

कोशिश  करते  हैं जीवन  मे रंग भरें
पर  हालात  सियाही भरने लगते  है

अपनी  ख़ुद्दारी  के  पर  अपने  हाथों
हम  होकर मज़बूर, कतरने लगते हैं

औरों  के  डर  का बाइस बनते हैं, वो
अपने  साये  से  भी  डरने  लगते   हैं

ज़िम्मेदारी  पाकर  अत्फ़ाले  ख़ुदसर
ख़ुद ही अपने  आप  सुधरने लगते हैं

सुनने लगता है जब जिस्म सदा-ए-रूह
हम   भवसागर - पार  उतरने  लगते  हैं

ग़म  होता  है  अपनों  के  जाने  का पर
ज़ख़्म  हमारे  ख़ुद  ही  भरने  लगते  हैं

होता है अहसास जब अपनी ग़लती का
हम   अपने   नाखून   कुतरने  लगते  हैं

हुस्नो इश्क  का  जब संगम  हो जाता है
चेहरे  अपने   आप   निखरने   लगते  हैं

शेषधर तिवारी, इलाहाबाद
13 अप्रैल, 2018

Comments

Popular posts from this blog

शबे वस्ल ऐसे उसको खल रही थी

मेरा ख़ुशियों से साबका पूछा

तू कभी मिल जाये तो इस बात का चर्चा करूँ