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Showing posts from June, 2018

अगर क़ुव्वत है तो पढ़ लो हमारी मुस्कराहट को

अगर  क़ुव्वत है तो  पढ़ लो  हमारी  मुस्कराहट को झुकी पलकें बताओ सुन रही हैं किसकी आहट को भले   मासूम   चेहरे  पर   निगाहें   थम   गयीं  मेरी मगर  पढ़  तो चुका  हूँ तेरे मन की  छटपटाहट को तसव्वुर  के  फ़साने  सब  अयाँ  हो  जायेंगे पल में अगर  तुम  पढ़  सको  मेरे लबों की थरथराहट को मुझे  दौरे  खिजां  को  भी  अभी  महसूस  करना है सुनूँगा  बादे  सरसर   की   सुरीली  सरसराहट   को तुझे  देखूँ   तो  रुकता  है   रगों  में  क्यों  लहू  मेरा पटकता  हूँ  कि  पैरों से  मिटा  लूँ  झनझनाहट को तुम्हारे दिल की बातें ख़ुद ब ख़ुद  ही नस्र हो जातीं सुना  होता जो  मैंने  चूड़ियों  की  खनखनाहट को तेरे    आँसू    लगे   झूठे    तेरी   बातें   लगीं   झूठी किया  महसूस  जब तेरी ज़ुबां की लड़खड़ाहट को मेरे  जज़्बात  के  बादल  बरस  जाने को आतुर  हैं सुनो दिल पर लगाकर कान इनकी गड़गड़ाहट को शेषधर तिवारी 25th June, 2018

शबे वस्ल ऐसे उसको खल रही थी

शबे वस्ल ऐसे उसको खल रही थी उदासी  रात  भर  बेकल  रही  थी सुकूं  गायब  हुआ  चेहरे  से  उसके जो  देखा  नब्ज़  मेरी  चल रही थी गले  मिलकर गला काटा फिर उसने वही  फ़ित्रत  दिखी जो कल रही थी तसव्वुर   में   वो   मेरे   क़ैद   है  जो बहुत दिन  आँख  से ओझल रही थी बही वो आख़िरश अश्कों में ढल कर अना  जो  बेसबब  ही  पल  रही  थी न थी तज़हीजो तकफ़ीं* की ज़रूरत वो  अपनी आग में  ही जल  रही  थी जगी थी आस फिर, जब बर्फ ज़िद की भले  धीरे  ही  लेकिन  गल   रही   थी मुकर्रर  साअत  आ  पहुँची  विदा  की जुदाई  तय  थी  लेकिन  टल  रही थी * अंतिम क्रिया का सामान शेषधर तिवारी, इलाहाबाद

नींद के बोझ से कुछ सँभलता हुआ

नींद   के  बोझ  से  कुछ  सँभलता हुआ शम्स निकला है फिर आँख मलता हुआ ये  पता  अब  चला ,संगे मील इस क़दर दूर   लाया   हमे ,  साथ   चलता   हुआ ख़्वाब  मेरे  थे  शादाब   गुल  की  तरह क्यों  गया  वक़्त  उनको मसलता हुआ मेरे   सपनों   में  आता   है  क्यों  बारहा मेरा  नन्हा  सा  बचपन  मचलता  हुआ अपनी  सोज़े मुहब्बत  को  क़ाइम रखो हमने   देखा  है   लोहा  पिघलता  हुआ प्यास  ख़ुद  ही  पशेमां  हुई   देख  कर रेत  का   इक   समुन्दर  उबलता  हुआ रौशनी    की    चकाचौंध   में    देखिये एक  टुकड़ा  अँधेरे   का  चलता  हुआ ग़ौर   से   देखिए   फ़ित्रत   इंसान   की कैसा लगता है ख़ुद को ही छलता हुआ शेषधर तिवारी, इलाहाबाद 9335303497

न है अब शै कोई जो चैन छीने

न है अब शै कोई जो चैन छीने यूँ मुत'अस्सिर किया है शायरी ने समंदर से निकलने को है दरिया किया आगाह आँखों की नमी ने नही छूटे हैं उसके दाग अब तक बहुत दिन चाँद को धोया नदी ने चला हूँ धूप को मुट्ठी में ले कर बहुत कर ली ठिठोली तीरगी ने तुम्हारी नीमवा आँखों से शायद कहा है कुछ दिये की रोशनी ने ताक़ाज़ाए जुनू है जां से गुजरूँ किया शक मेरी उल्फ़त पर किसीने तू उसकी नेकियां कैसे गिनेगा उन्हें डाला है दरिया में उसी ने जो सब में है उसी की जुस्तजू में कोई  काशी  गया  कोई  मदीने शराफत छोड़नी थी या मसर्रत शराफत छोड़ दी है आदमी ने