नींद के बोझ से कुछ सँभलता हुआ

नींद   के  बोझ  से  कुछ  सँभलता हुआ
शम्स निकला है फिर आँख मलता हुआ

ये  पता  अब  चला ,संगे मील इस क़दर
दूर   लाया   हमे ,  साथ   चलता   हुआ

ख़्वाब  मेरे  थे  शादाब   गुल  की  तरह
क्यों  गया  वक़्त  उनको मसलता हुआ

मेरे   सपनों   में  आता   है  क्यों  बारहा
मेरा  नन्हा  सा  बचपन  मचलता  हुआ

अपनी  सोज़े मुहब्बत  को  क़ाइम रखो
हमने   देखा  है   लोहा  पिघलता  हुआ

प्यास  ख़ुद  ही  पशेमां  हुई   देख  कर
रेत  का   इक   समुन्दर  उबलता  हुआ

रौशनी    की    चकाचौंध   में    देखिये
एक  टुकड़ा  अँधेरे   का  चलता  हुआ

ग़ौर   से   देखिए   फ़ित्रत   इंसान   की
कैसा लगता है ख़ुद को ही छलता हुआ

शेषधर तिवारी, इलाहाबाद
9335303497

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