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Showing posts from February, 2018

मिलता है वो नसीब से हर सू तलाश कर

मिलता है वो नसीब से हर सू तलाश कर है  तेरे  ही  करीब  ख़ुदा  तू  तलाश  कर बूढ़े  शजर भी  हैं जहाँ  बा बर्गो बार अब उस दश्त में  है कौन सा जादू तलाश कर दामन  तो  तार  तार  हैं सब के ही इश्क में अब तंज़ के कुछ और ही पहलू तलाश कर मुर्दा  लबों  से  चीख सी उठने लगी है जब क़ब्रों  से  उग  रहे  हों  वो बाजू तलाश कर हो  रूह  की  रिज़ा  तो  मेरे  क़त्ल के लिए हो  शर्म  से  न सुर्ख़ वो  चाक़ू  तलाश  कर मुझसे   उमीद  कर  न   उसे   बेवफ़ा  कहूँ दिन  को  कहे जो रात वो बुद्धू तलाश कर जो  बह  गए  वो  अश्क  मेरे  धूल  में  मिले आँखों  में ज़ज्ब  हैं जो वो आँसू तलाश कर आदम  की  ज़ात  से हूँ  मुझे आदमी ही कह मुस्लिम  न  मुझमे  ढूँढ़  न हिन्दू  तलाश कर रहने  लगे  उदास   सितारे   फलक   पे  अब बेहतर  है  तू  ज़मीन  पे  जुगनू  तलाश  कर जिसके   लिए   तू   भाग   रहा  है  यहाँ वहाँ कस्तूरी   है   तुझी   में  वो आहू! तलाश कर आहू   मृग शेषधर तिवारी, इलाहाबाद 9335303497

आज आओ प्यार से हम प्यार की बाते करें

आज आओ प्यार से हम प्यार  की बाते करें प्यार  में  इक़रार  की  इनकार  की बातें करें मान  जाने  के  लिए  तुम रूठ जाते थे कभी उस  हसीं  पल  में हुई  मनुहार की बातें करें बंदिशों को तोड़ कर जीने की कोशिश में हमें वक़्त  के  हाथों  मिली  हर  हार की बातें करें एक  दूजे  की  ख़ुशी  के  वास्ते  लाँघा  जिन्हें राह  में  आयी  हर  इक  दीवार  की बातें करें ज़िंदगी की जंग हम हारे  नही  तो  क्या हुआ फ़र्ज़  के आगे झुके  अधिकार  की  बातें  करें हम बुना करते थे सपने ख़्वाहिशों की डोर से उस  शिकस्ता  डोर के  हर तार की बातें करें हम चमनबन्दी करें शादाब दिल की अज़्म से जो  हैं  रंजीदा  भले  ही  ख़ार  की  बातें करें

तुम ह्रदय की चेतना हो क्यों तुम्हे अभिशाप समझूँ

तुम  ह्रदय की चेतना हो क्यों तुम्हे अभिशाप समझूँ मैं परस्पर प्रेम की अभिव्यक्ति को क्यों पाप समझूँ सृष्टि  की  संकल्प-यात्रा  में  रहे  तुम  साथ  मेरे तो सृजन-हित-साधना में क्यों निहित संताप समझूँ तुम नहीं हो मेनका, मैं भी न विश्वामित्र हूँ, फिर प्रेम के अतिरेक को मैं क्यों किसी का श्राप समझूँ वास्तविकता यदि किसी भी व्यक्ति की मैं जान पाऊँ दिव्य-द्रष्टा-दृष्टि की इसको प्रथम-पद-चाप समझूँ ज्ञात है जब मृत्यु निश्चित और जीवन है अनिश्चित तो भला हर श्वास को क्यों मृत्यु-स्वर-आलाप समझूँ क्यों भरूँ नैराश्य जीवन में, रखूँ निज भाव कुंठित क्यों नहीं प्रारब्ध को ही भाग्य का परिमाप समझूँ बंधु-बांधव सोच परिमार्जित करें यदि भूल कर सब भाव  की  स्वीकार्यता  को  क्यों न पश्चाताप समझूँ

नीमवा आँखें तुम्हारी कह रही हैं वो कहानी

नीमवा आँखें  तुम्हारी  कह  रही  हैं  वो कहानी जो गुज़िश्ता रात तुमने ख़ुद शुरू की थी सुनानी साज़िशों में  मुब्तिला थी साथ  तेरे लौ दिये की जो  हमारी  धड़कनों  की कर रही थी तर्जुमानी तेरे  दिल  की आहटें  मुझको  सुनाई  दे रही थीं और भरती जा रा रही थीं मेरे दिल में बदगुमानी मैं  उरूजे  बख़्त  पर हैरान आख़िर क्यूँ न होता यक ब यक आसान कैसे हो गयी थी  ज़िंदगानी मुतमइन  कब  तक  रहोगे रेत में गर्दन छुपा कर मौत  गैबी  है  किसी  दिन आयेगी  वो नागहानी