तुम ह्रदय की चेतना हो क्यों तुम्हे अभिशाप समझूँ

तुम  ह्रदय की चेतना हो क्यों तुम्हे अभिशाप समझूँ
मैं परस्पर प्रेम की अभिव्यक्ति को क्यों पाप समझूँ

सृष्टि  की  संकल्प-यात्रा  में  रहे  तुम  साथ  मेरे
तो सृजन-हित-साधना में क्यों निहित संताप समझूँ

तुम नहीं हो मेनका, मैं भी न विश्वामित्र हूँ, फिर
प्रेम के अतिरेक को मैं क्यों किसी का श्राप समझूँ

वास्तविकता यदि किसी भी व्यक्ति की मैं जान पाऊँ
दिव्य-द्रष्टा-दृष्टि की इसको प्रथम-पद-चाप समझूँ

ज्ञात है जब मृत्यु निश्चित और जीवन है अनिश्चित
तो भला हर श्वास को क्यों मृत्यु-स्वर-आलाप समझूँ

क्यों भरूँ नैराश्य जीवन में, रखूँ निज भाव कुंठित
क्यों नहीं प्रारब्ध को ही भाग्य का परिमाप समझूँ

बंधु-बांधव सोच परिमार्जित करें यदि भूल कर सब
भाव  की  स्वीकार्यता  को  क्यों न पश्चाताप समझूँ

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