शबे वस्ल ऐसे उसको खल रही थी
शबे वस्ल ऐसे उसको खल रही थी
उदासी रात भर बेकल रही थी
सुकूं गायब हुआ चेहरे से उसके
जो देखा नब्ज़ मेरी चल रही थी
गले मिलकर गला काटा फिर उसने
वही फ़ित्रत दिखी जो कल रही थी
तसव्वुर में वो मेरे क़ैद है जो
बहुत दिन आँख से ओझल रही थी
बही वो आख़िरश अश्कों में ढल कर
अना जो बेसबब ही पल रही थी
न थी तज़हीजो तकफ़ीं* की ज़रूरत
वो अपनी आग में ही जल रही थी
जगी थी आस फिर, जब बर्फ ज़िद की
भले धीरे ही लेकिन गल रही थी
मुकर्रर साअत आ पहुँची विदा की
जुदाई तय थी लेकिन टल रही थी
* अंतिम क्रिया का सामान
शेषधर तिवारी, इलाहाबाद
Comments
Post a Comment