न है अब शै कोई जो चैन छीने

न है अब शै कोई जो चैन छीने
यूँ मुत'अस्सिर किया है शायरी ने

समंदर से निकलने को है दरिया
किया आगाह आँखों की नमी ने

नही छूटे हैं उसके दाग अब तक
बहुत दिन चाँद को धोया नदी ने

चला हूँ धूप को मुट्ठी में ले कर
बहुत कर ली ठिठोली तीरगी ने

तुम्हारी नीमवा आँखों से शायद
कहा है कुछ दिये की रोशनी ने

ताक़ाज़ाए जुनू है जां से गुजरूँ
किया शक मेरी उल्फ़त पर किसीने

तू उसकी नेकियां कैसे गिनेगा
उन्हें डाला है दरिया में उसी ने

जो सब में है उसी की जुस्तजू में
कोई  काशी  गया  कोई  मदीने

शराफत छोड़नी थी या मसर्रत
शराफत छोड़ दी है आदमी ने

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