जिंन्दगी को शाद करने के लिए
जिंन्दगी को शाद करने के लिए
जी रहे हैं लोग मरने के लिए
आइने की साफ़गोई देख कर
वो हुए राज़ी सँवरने के लिए
ख़ुदसरी अपनी ही ज़िम्मेदार है
अपने ही साये से डरने के लिए
मौत की तलवार क्यूँ लटकी है यूँ
ज़िन्दगी क्या कम है मरने के लिए
सोगवार अब घर की हर दीवार है
ग़म को ही ग़मख़्वार करने के लिए
दिल! रज़ामंदी ज़रूरी है तेरी
हम तो राज़ी हैं सुधरने के लिए
वक़्त थोड़ा चाहिए ख़ुशियों को भी
पैकर-ए-ग़म पर उभरने के लिए
देखकर मुझको तेरी आँखें हैं नम
कम है क्या मेरे निखरने के लिए
शेषधर तिवारी, इलाहाबाद
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10 मार्च, 2018
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