जिसे छू के मैं बारहा जल चुका हूँ
जिसे छू के मैं बारहा जल चुका हूँ
उसी राख में ज़िंदगी ढूंढता हूँ
लहू जिनकी आँखों में उतरा है, उनसे
है पानी कहाँ आँख का, पूछता हूँ
लिए आग आँखों में, आँसू गले में
ख़ुद अपनी ही मुट्ठी में कस कर दबा हूँ
मैं उतरा हूँ जिसकी हक़ीक़त की तह में
वो समझा कि मैं डूब कर मर चुका हूँ
मेरी बेबसी का ये आलम तो देखो
उसे चुप करा कर मैं खुद रो रहा हूँ
मैं सूरज को रस्ता दिखाता हूँ दिन भर
अँधेरे में अपना ही घर ढूंढता हूँ
मुझे जो भी अच्छी तरह जानता है
बता दे वही, क्या मैं उससे बुरा हूँ
समुंदर जो बनता तो ठहरा ही रहता
रवानी की ख़्वाहिश में दरिया हुआ हूँ
था अपनी ही तस्वीर में क़ैद लेकिन
उसे तोड़कर अब रिहा हो चुका हूँ
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