नहीं मिलती है मंज़िल तो गिला क्या
नहीं मिलती है मंज़िल तो गिला क्या
किसी की मिल्कियत है रास्ता क्या
निकल आया है सूरज, खोल आँखें
तेरी ख़ातिर उगेगा दूसरा क्या
चले हो फिर मुक़द्दर आज़माने
तुम्हे रास आ गया है टूटना क्या
जो मेरा था वो अब मेरा नहीं है
पड़े इस फ़र्क़ से ही फ़र्क़ क्या क्या
झुका देते हो सर हर आस्ताँ पर
तुम्हें लगता है हर पत्थर ख़ुदा क्या
निखरती जा रही है बदनसीबी
इसे लगती नहीं है बद्दुआ क्या
ज़माने की बहुत है फ़िक्र तुझको
तू अपने आप से उकता गया क्या
जहाँ हँस कर मिले शेख़ और पंडित
वही अब मयकदे का है पता क्या
मेरी नींद उड़ के किस को ढूँढती है
तेरे ख़्वाबों ने दी कुछ इत्तिला क्या
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