अश्क उनके तो पोंछ आये हम
अश्क उनके तो पोंछ आये हम
ख़ुद मगर मुस्करा न पाये हम
छाँव औलाद के लिए बनकर
धूप का लुत्फ़ ख़ूब उठाए हम
घर मकां को बना नहीं पाते
तोड़ते हैं बसे बसाये हम
शह्र ने ख्वाब भी नहीं बख़्शे
गाँव लौटे लुटे लुटाये हम
हक़ हमें है गुनाह का आदम
आख़िरश हैं तेरे ही जाये हम
सर जब अपने पड़ी तो भूल गए
फ़लसफ़े सब रटे रटाये हम.
ख़्वाहिशों ने कही ग़ज़ल पूरी
एक भी शेर कह न पाये हम
शायरी का नशा चढ़ा जब से
होश में फिर कभी न आये हम
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