कागज़ की कश्ती पर दाँव लगाते हो
कागज़ की कश्ती पर दाँव लगाते हो
तुहमत सारी लहरों को दे जाते हो
हँसते हो तो चेहरा साथ नहीं देता
आख़िर क्यों अपने जज़्बात छुपाते हो
आँखों से अल्फ़ाज़ टपकने लगते हैं
जब मजबूरन ख़ामोशी अपनाते हो
तुमको दरिया का सानी कैसे कह दूँ
तुम तो सागर को भी पास बुलाते हो
कैसी भी हो आग हमारे बीच मगर
बुझ जाती है इतने अश्क़ बहाते हो
एक अकेला सूरज क्या कर पायेगा
तुम भी नूरफ़िशां हो, बोलो, आते हो
जान गए क्या तल्ख हक़ीक़त ख़्वाबों की
जो पलकें बोझिल हों तो घबराते हो
मेरी फ़ित्रत है लंबी रेखा खींचूँ
तुम नाहक़ ही मुझसे होड़ लगाते हो
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