इक राह के मुसाफ़िर हम भी हैं और तुम भी

इक राह  के  मुसाफ़िर  हम  भी हैं और तुम भी
इक मुश्ते ख़ाक आख़िर हम भी हैं और तुम भी

रखते  हैं  सोच  ओछी,  मज़हब  पे  दूसरे  के
इस ज़ाविये से काफ़िर हम भी हैं और तुम भी

अपनी अक़ीदतों का हम चाहते हैं प्रतिफल
इस तर्ह एक ताजिर, हम भी हैं और तुम भी

ज़हनों में अक्स कितने हम रोज हैं बनाते
ख़ुद में निहाँ मुसव्विर हम भी हैं और तुम भी

ढोते हैं ज़िन्दगी भर हम बारे जिस्म लेकिन
दर अस्ल बस अनासिर हम भी हैं और तुम भी

हमको जहां में आकर पहचान क्या मिली है
सोचो तो इक मुहाजिर हम भी हैं और तुम भी

नाराज़गी  है  हम  को,  तुम  को  शिकायतें  हैं,
दर पर उसी के क्यूँ फिर, हम भी हैं और तुम भी

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