कोई शिकवा गिला है ही नहीं अब
कोई शिकवा गिला है ही नहीं अब
अदावत में मज़ा है ही नहीं अब
चलो फिर इब्तिदा पर लौटते हैं
उमीदे इंतिहा है ही नहीं अब
ख़ुशी की जुस्तजू की क्या ज़रूरत
ग़मों से वास्ता है ही नहीं अब
मज़ा लेना है अब दौरे ख़िजां का
चमन में कुछ बचा है ही नहीं अब
किया है क़त्ल कितनी बार ख़ुद को
मेरे हिस्से क़ज़ा है ही नहीं अब
मरेगा भूख से प्यासा समुन्दर
नदी में वो ग़िज़ा है ही नहीं अब
शरीके जुर्म हो तो ख़ौफ़ किसका
गुनाहों की सज़ा है ही नहीं अब
राफ़ाक़त में कहाँ है वैसी शिद्दत
किसी में बचपना है ही नहीं अब
शेषधर तिवारी, इलाहाबाद
27 जून, 2018
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